नोबेल शांति पुरस्कार का उद्देश्य दुनिया में शांति, मानवता और सह-अस्तित्व को बढ़ावा देना होता है। लेकिन जब डोनाल्ड ट्रंप जैसे व्यक्तित्व इसके दावेदार बनते हैं, तो सवाल उठना लाजमी है—क्या अब शांति की परिभाषा बदल गई है?
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक बार फिर खुद को नोबेल पीस प्राइज़ का योग्य उम्मीदवार बताया है। यह वही ट्रंप हैं, जिनके कार्यकाल में अमेरिका ने कई अंतरराष्ट्रीय समझौतों से किनारा किया, ईरान और उत्तर कोरिया के साथ तनाव चरम पर पहुंचा, और घरेलू स्तर पर नस्लीय विभाजन की आग भड़क उठी।
ट्रंप की ‘शांति नीति’ या ‘टकराव की रणनीति’?
ट्रंप का दावा है कि उन्होंने मध्य पूर्व में इज़रायल और कुछ अरब देशों के बीच शांति समझौते करवा कर वैश्विक शांति में योगदान दिया है। लेकिन आलोचकों का कहना है कि ट्रंप ने जितनी जल्दी डील्स की घोषणा की, उतनी ही तेजी से वे उलझनों में भी फंस गईं।
उनके कार्यकाल में:
- ईरान परमाणु समझौते से अमेरिका बाहर हुआ।
- अफगानिस्तान से जल्दबाज़ी में अमेरिकी सेना की वापसी ने हालात बिगाड़े।
- उत्तर कोरिया से ‘प्रेम पत्र’ जैसी कूटनीति मज़ाक बनकर रह गई।
- घरेलू स्तर पर कैपिटल हिल पर हिंसा जैसे शर्मनाक पल देखने को मिले।
ट्रंप बनाम नोबेल की मूल भावना
नोबेल पीस प्राइज़ की मूल भावना है: संवाद, समर्पण और संघर्ष की बजाय सहमति। जबकि ट्रंप की राजनीतिक शैली टकराव, धमकी और मीडिया ड्रामे के इर्द-गिर्द घूमती रही है।
फिर भी, ट्रंप समर्थकों का कहना है कि उन्होंने ‘नया अमेरिका’ दिखाया जो ताकतवर है और किसी से नहीं डरता — लेकिन सवाल यह है कि क्या डर फैलाकर शांति लाई जा सकती है?
राजनैतिक नौटंकी या असली दावेदारी?
कई विश्लेषक मानते हैं कि ट्रंप का नोबेल की ओर झुकाव असल में 2024 की चुनावी रणनीति का हिस्सा है। खुद को ‘ग्लोबल लीडर’ और ‘शांति निर्माता’ के रूप में प्रोजेक्ट करना उनकी छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चमकाने का प्रयास भर है।
डोनाल्ड ट्रंप का नोबेल शांति पुरस्कार के लिए खुद को आगे करना एक ऐसी विडंबना है, जो शायद ही इतिहास ने कभी देखी हो — जहाँ एक व्यक्ति टकराव के रास्ते पर चलकर शांति का तमगा चाहता है। क्या नोबेल कमेटी इस “राजनीतिक ड्रामे” से प्रभावित होगी या दुनिया अब भी शांति का असली मतलब समझती है — यह आने वाला समय बताएगा।