हूल दिवस भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक अत्यंत गौरवशाली अध्याय का प्रतीक है। यह दिवस 30 जून को हर वर्ष झारखंड, बंगाल, बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों में मनाया जाता है। हूल का अर्थ होता है “विद्रोह”, और यह दिन विशेष रूप से संथाल जनजाति के उस ऐतिहासिक आंदोलन को समर्पित है, जो उन्होंने अंग्रेजों और ज़मींदारी शोषण के खिलाफ 1855 में शुरू किया था।
📚 इतिहास की झलक: संथाल विद्रोह 1855
30 जून 1855 को सिदो मुर्मू और कान्हू मुर्मू के नेतृत्व में लगभग 50,000 संथालों ने ब्रिटिश हुकूमत और स्थानीय ज़मींदारों के अत्याचारों के खिलाफ बगावत कर दी। यह आंदोलन झारखंड के भागलपुर और संथाल परगना क्षेत्र में फैल गया और अंग्रेजी शासन की नींव हिलाकर रख दी।
यह विद्रोह भारत के पहले बड़े आदिवासी आंदोलनों में से एक था, जिसने देशभर के स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरित किया।
🏞️ हूल दिवस का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व
- संथाल समाज के स्वाभिमान और बलिदान की पहचान
- आदिवासी अधिकारों और संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष की प्रतीक
- युवाओं में जागरूकता फैलाने का सशक्त माध्यम
हर वर्ष हूल दिवस पर रैलियों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, श्रद्धांजलि सभाओं और जनसभाओं का आयोजन होता है। झारखंड सरकार भी इस दिन को राजकीय कार्यक्रम के रूप में मान्यता देती है।
🙏 वीरों को नमन: सिदो-कान्हू की विरासत
सिदो और कान्हू मुर्मू, जिनका नाम आज भी आदिवासी समाज में श्रद्धा से लिया जाता है, इस आंदोलन के नायक थे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हथियार उठाकर यह साबित किया कि भारत के आदिवासी भी अन्याय के खिलाफ चुप नहीं बैठेंगे।
हूल दिवस सिर्फ एक तिथि नहीं, बल्कि एक चेतना है
हूल दिवस हमें यह याद दिलाता है कि भारत की आज़ादी केवल मैदानों की लड़ाई नहीं थी, बल्कि जंगलों और पहाड़ियों में भी उसके लिए बलिदान दिए गए। यह दिन हर भारतीय को आदिवासी समाज की वीरता, बलिदान और आत्म-सम्मान की याद दिलाता है।